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माहं म॒घोनो॑ वरुण प्रि॒यस्य॑ भूरि॒दाव्न॒ आ वि॑दं॒ शून॑मा॒पेः। मा रा॒यो रा॑जन्त्सु॒यमा॒दव॑ स्थां बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

māham maghono varuṇa priyasya bhūridāvna ā vidaṁ śūnam āpeḥ | mā rāyo rājan suyamād ava sthām bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। अ॒हम्। म॒घोनः। व॒रु॒ण॒। प्रि॒यस्य॑। भू॒रि॒ऽदाव्नः॑। आ। वि॒द॒म्। शून॑म्। आ॒पेः। मा। रा॒यः। रा॒जन्। सु॒ऽयमा॑त्। अव॑। स्था॒म्। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:29» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:7 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) श्रेष्ठ विद्वान्! जैसे (अहम्) मैं (प्रियस्य) कामना के योग्य (भूरिदाव्नः) बहुत दान के दाता (आपेः) प्राप्त होते हुए (मघोनः) प्रशंसित धनवाले पुरुष के (शूनम्) सुख को (आ,विदम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होऊँ जिससे दुःख को (मा) न प्राप्त हों वे (राजन्) राजन् सभापते! जैसे मैं (सुयमात्) सुन्दर यम-नियम के साधक (रायः) धनसे (अव,स्थाम्) अवस्थित होऊँ जिससे दरिद्रता को (मा) न प्राप्त होऊँ जिससे मिलकर (सुवीराः) सुन्दर वीर पुरुषोंवाले हमलोग (विदथे) युद्धादि में (बृहत्) बहुत बलपूर्वक (वदेम) कहें ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् और सभापति आदि राजपुरुषों को योग्य है कि उन धर्मसम्बन्धी कार्यों को करें, जिनसे दुःख और दरिद्रता प्राप्त न हों और आपस में मिलके सुन्दर वीरोंवाली प्रजाओं को करें ॥७॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह उन्तीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वरुण विद्वन् यथाऽहं प्रियस्य भूरिदाव्नः आपेर्मघोनश्शूनमा विदं येन दुःखं माऽऽप्नुयाम्। हे राजन् यथाऽहं सुयमाद्रायोऽवस्थां यस्माद् दारिद्र्यं माप्नुयां तथा त्वं भव। यतो मिलित्वा सुवीरा वयं विदथे बृहद्वदेमेति ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (अहम्) (मघोनः) प्रशंसितधनवतः (वरुण) श्रेष्ठ (प्रियस्य) कमनीयस्य (भूरिदाव्नः) बहुदातुः (आ) (विदम्) प्राप्नुयाम् (शूनम्) सुखम्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। शुनमिति सुखना० निघं० ३। ६ (आपेः) प्राप्नुवतः (मा) (रायः) धनात् (राजन्) (सुयमात्) सुष्ठु यमसाधकात् (अव) (स्थाम्) तिष्ठेयम् (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिः सभापत्यादिराजपुरुषैश्च तानि धर्मकार्याणि कर्त्तव्यानि यैर्दुःखदारिद्र्ये न प्राप्नुताम्। परस्परं मिलित्वा च सुवीराः प्रजाः कर्त्तव्याः ॥७॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान व सभापती इत्यादी राजपुरुषांनी धर्मासंबंधी असे कार्य करावे की ज्यामुळे दुःख व दरिद्रता प्राप्त होता कामा नये व परस्पर मिळून युद्धासाठी सुंदर वीरयुक्त प्रजा उत्पन्न करावी. ॥ ७ ॥